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Friday, October 9, 2020

अंगिका केरोॅ वामन : डॉ. माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ | Angika Sansmaran | अंगिका संस्मरण | अनिरुद्ध प्रसाद विमल | Angika Kerow Vaman - Dr. Maheshwari Singh Mahesh | Angika Memoirs | Aniruddh Prasad Vimal

 

अंगिका केरोॅ वामन : डॉ. माहेश्वरी सिंह महेश 

अंगिका संस्मरण | अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Angika Kerow Vaman - Dr. Maheshwari Singh Mahesh 

 Angika Sansmaran | Aniruddh Prasad Vimal


बैसाखोॅ के महिना छेलै। धूप में धरती तपी केॅ आगिन होय रहलोॅ छेलै। दुपहर के समय छेलै। सूरज सीधे माथा पर कोय आगिन के लहकलोॅ पिंड नाँखी लहकी रहलोॅ छेलै। लू धुइयाँ नाँखी उड़ी रहलोॅ छेलै, हम्में आपनोॅ स्कूल से छुट्टी होला के बाद पुनसिया, समय साहित्य सम्मेलन के कार्यालय से कुछ जरूरी काम सें निबटी केॅ लौटी रैल्होॅ छेलियै। हमरोॅ गाँव मिर्जापुर चंगेरी पुनसिया से एक-डेढ़ कोस सें जादा नै होतै। यही लेलोॅ प्रचण्ड धूप, लू आरोॅ बतास रहला के बादोॅ हमरोॅ ई रोजे नियम छेलै कि स्कूल सें छुट्टी होला के बाद हम्में आॅफिस जाय केॅ घंटा भर काम जरूर करै छेलियै। माॅरनिंग स्कूल होला के कारण हमरा एकरा में कोय परेशानी नै बुझाय छेलै।
मई 1985 के ऊ दिन हम्में कभियो नै भूलेॅ पारौं। 17 मई के मंगलवार दिन। ऊ रोज करीब साढ़े बारह बजी गेलोॅ होतै। जरूरी लिखलोॅ चिट्ठी-पतरी डाकोॅ में दैकेॅ हम्में साईकिल उठैलियै आरोॅ घरोॅ बास्तें चली देलियै। भूख तेॅ लागियै गेलोॅ रहै। यै लेली पछिया हवा के आपनोॅ पूरा जोर पर रहला के बादो हमरोॅ साइकिल आपनोॅ पूरे गति में चलेॅ लागलै। एक तरफें विपरीत दिशा से बही रहलोॅ सनसन करतें पछिया आरोॅ दोसरा तरफें हम्में। नै ते पछिया थक्की रेल्होॅ छेलै आरो नै तेॅ हम्में। हारना यदि वैं ने सीखले छेलै ते हम्मू जिन्दगी में कहियो हारना नै सीखलेॅ छेलियै। हमरोॅ देहोॅ से छरछर घाम चुवेॅ लागलोॅ छेलै। आभी हम्में आधोॅ रास्ता नै गेलोॅ होवेॅ कि सुनसान रास्ता में दौड़ी रहलोॅ रौदी के बीच छाता तानलेॅ, गोरोॅ नाटोॅ एक आदमी केॅ जैतेॅ देखी केॅ बड़ी अचरज लागलै। 
दक-दक खादी के सफेद धोती-कुरता पिन्हलेॅ ई आदमी वामन के अवतार लागलै, जें आपनोॅ डेग से धरती केॅ फेरू नापै के संकल्प लेनें, मस्ती में झूमलोॅ,धूप के चिन्ता सें निफिकिर चल्लोॅ जाय रहलोॅ छेलै। हमरा मनोॅ में ढेरी सिनी बात उठेॅ लागलै। दुपहरिया रौदी में लू आरो हवा केॅ रौंदलेॅ सुन्दर, सौम्य आरो सुकुमार देह वाला ई आदमी के हुवेॅ पारै ? वेश-भूषा आरो व्यक्तित्व देखी के हुनी साधारण आदमी नै लागै छेलै।  हमरोॅ साईकिल  के गति धीमा होय गेलोॅ छेलै। सोच-विचार में भरलोॅ हमरोॅ माथोॅ हुनका पार करी केॅ आगू बढ़ेॅ लागलै। उलटी केॅ हुनका देखलियै भी आरो चीन्है के कोशिश भी करलियै। मतुर कहियो देखलोॅ रहतियै तबेॅ नी चिन्हेॅ पारतियै। हमरोॅ साईकिल अपनें आप रुकी गेलै। थोड़े दूर तेॅ बढ़ले छेलियै। जेना दैवी अनजान-अनचिन्हलोॅ शक्ति से कोय अभिभूत होय जाय छै, वहेॅ रं हमरोॅ हाल होय गेलोॅ रहै। तब तांय हुनी हमरा ठिंया आबी गेलोॅ छेलै; हुनिये हमरा से पुछलकै-‘‘चंगेरी मिर्जापुर जाय के यहेॅ रसता छेकै न ?’’ हम्में ‘हों’ कहतें हुनका से पूछलियै-‘‘अपनें के व्यक्तित्व सें अभिभूत होय केॅ नै चाहतें हुए भी रुकी गेलियै। आपनें के की परिचय भेलै ? ई रौदी में घाम-पसीना सें भींगलोॅ केकरा कन, कोन कामोॅ सें जाय रहलोॅ छियै ?
हुनी हल्का मुस्कुरैलै। हुनका मुस्कुरैतें हुनकोॅ घनोॅ पाकलोॅ मूछोॅ पर सें पसीना के बूंद थरथराय केॅ गिरी गेलै। हुनी हाँसतें हुअें कहलकै-‘‘तोंय जरूर कोय कवि साहित्यकार छेकौ। तोरोॅ नाम  विमल विद्रोही या विद्रोही तेॅ नै छेकौ।’’ (हम्में पैन्हेॅ विद्रोही उपनाम सें ही नाटक कविता लिखेॅ छेलियै।) आपनोॅ नाम हुनकोॅ मुंहोॅ सें सुनी केॅ चकित हम्में फेरू हुनकोॅ परिचय जानै लेॅ बच्चा नाकी मचली उठलियै। हुनी आगू कदम बढ़ैतें हुअें कहलकै-‘‘हमरोॅ नाम महेश्वरी सिंह ‘महेश’ छेकै। चलोॅ नी। रौद छै। रस्ता में बात करतें चलबै।’’ एतना सुनतै हम्में झनझनाय उठलियै आरो श्रद्धा सें हुनकोॅ चरण स्पर्श करलियै। चरण छूतें हमरा लागी रहलोॅ छेलै कि सचमुच हम्में भगवान वामन के गोड़ छुवी रहलोॅ छियै।
हुनी पीठ थपथपाय केॅ आशीर्वाद देतें फेरू बोललै-‘‘हमरोॅ अनुमान सही छै नी। तोंय ‘विमल’ ही ने छेकौ।’’
‘‘आपनें सें तेॅ हम्में पैहले दफा मिली रहलोॅ छियै। हौं, नाम सें तेॅ परीचित खूब्बे छिये। आपनें के नाम के नै जानै छै। मतुर अपनें हमरा केनां जानी गेलियै। हम्में सच में ‘विमल’ ही छेकियै।’’ हम्में पूरे शिष्टता सें कहलियै।
आबेॅ हम्में दुन्नो जना गप-शप करनें बढ़लेॅ जाय रहलोॅ छेलियै।
हुनी हाँसतें हुअें कहलकै-‘‘जाति जाति केॅ चिन्ही लै छै। तोरोॅ नाम तेॅ जानतैं छेलियै।’’

ओकरोॅ बाद ढेरी सिनी बात करनें दुनोॅ आदमी घोॅर पहुँचलियै। हुनी हमरे गांव में एक ठो देवघर विद्यापीठ सें स्वीकृति लेली एक आदमी नें हरिजन महाविद्यालय खोलनें छेलै। हुनी ओकरे जांच में ऐलोॅ छेलै। हुनी रसतें में पूछी लेलकै हमरा सें-‘‘हम्में जानै छेलिये कि बिना तोरोॅ हमरोॅ ई जांच कार्य पूरा नै होतै। हम्में झूठ लिखै वाला छियौं नै। तोंय सच-सच बताय देॅ कि काॅलेज सर जमीन पर छै कि झूट्ठे कागज पर दौड़ी रहलोॅ छै।’’
सत्य के ऊ मूरत के सामना में हम्में झूठ केनां बोलतियै। यद्यापि ऊ आदमी हमरोॅ बहुत निहोरा करनें छेलै। महाविद्यालय नै चलै छेलै आरो हम्में बिना कोय लाग-लपेट के ‘नै’ कहि देलियै। हम्में भूलेॅ नै पारौं कि हमरा सही जवाब सें हुनका कतना खुशी होलोॅ छेलै।
मतुर घोॅर ऐला के बाद हुनी काम होतै तुरते लोटे लेॅ चाहै लागलै। हम्में पत्नी केॅ पुकारलियै, चाहै छेलियै कि ई महापुरुष फेरू कहिया मिलतोॅ कि नै। पत्नी केॅ भी आशीर्वाद आरो दर्शन के सुख मिली जाय तेॅ अच्छा। पत्नी ऐलै। परिचय देतें वैं चरण छुवी केॅ आशीर्वाद लेलकै। हम्में पत्नी सें कहलियै-‘‘मीरा, हमरा बहुत जिद करला पर भी हिनी रुकै लेली तैयार नै हेाय रहलोॅ छै। खाना खिलाबोॅ। फेरू ई देवता सें... ... ... ’’।
हमरोॅ बात पूरा होय के पैन्हें हुनी बोली उठलै-‘‘नै, नै ऐन्होॅ बात नै कहोॅ। आदमी छी, आदमिये रहेॅ देॅ।’’ हम्में आगू कुच्छू बोलै के स्थिति में नै छेलियै। मीरा के देलोॅ एक लोटा पानी सें हुनी गोड़ धोतें कहलकै-‘‘तोरोॅ नाम आरो सौभाग्य दुनो अच्छा छौं। बेटी, खाली विमल सें लिखवैतें छौ कि कुच्छू लिखतौं छोॅ। तीस-पैंतीस बरस के उम्र में ही विमल नें अच्छा नाम करी लेनें छौं। हिनका सें भेंट तेॅ नै होलोॅ छेलै मतुर डाक सें हिनकोॅ सबटा लिखलोॅ किताब मिलतें रहलोॅ छै।’’
‘‘लिखै तेॅ नै छियै बाबू जी, मतुर जहाँ तांय होय छै
लिखै में हिनका मदद जरूर करै छियै। हिनी लिखी-पढ़ी केॅ आपनोॅ लक्ष्य पावै में सफल हुअेॅ, यहे हमरोॅ इच्छा छै। भगवानोॅ सें यहेॅ हरदम मनैतें रहै छियै।’’ मीरा शरमैतें हुअें कहलकै।
‘‘हमरोॅ आशीर्वाद छै। तोरोॅ इच्छा जरूर पूरा होतै।’’ पलंग पर बैठतें हुअें हुनी कहलके। ‘‘आरोॅ सुनोॅ हम्में जे कामोॅ सें ऐलोॅ छेलियै ऊ होय गेलै। हमरा जिम्मा समय बहुत कम छै। हम्में आबेॅ जैभौं।’’
खाना तैयार छेलै। बहुत जिद करला पर भी हुनी भोजन लेली तैयार नै होलै। पत्नी के अनुरोध पर हुनी कहलकै-‘‘उमर नै देखै छोॅ। आबेॅ पचतै नै छौं। खाय केॅ चलले छियै। कत्तेॅ खैबै। बुरा नै मानिहोॅं। घोर बुझै छोॅ। मट्ठा हुअेॅ तेॅ एक गिलास वहेॅ पिलावोॅ। चीनी नै, नमक दैकेॅ।’’
मीरां मट्ठा तैयार करतें हुअें कहलकै-‘‘बाबूजी, बाबाधाम के चढ़ौवा प्रसाद छै। ऊ टा तेॅ जरूरे पावियै।’’
बाबाधामोॅ के प्रसादोॅ के नामोॅ सें हुनी बहुत खुश होलै। प्रसाद पावी केॅ हुनी एक गिलास मट्ठा पिलकै। चार बजी रहलोॅ छेलै। बाहर आभियो पछिया रोॅ ताव खतम नै होलोॅ छेलै। मतुर महेश जी केॅ पछिया के की परवाय। ताव में पछिया सें कोय भी मायना में कम थोड़ोॅ छेलै हुनी। हवा-गैर, बतासोॅ के चिन्ता कहियो नै करै वाला ऊ वामन जेना ऐलोॅ छेलै होन्है चली देलकै, बिना कोय सवारी रोॅ, पैदले। हम्में पुनसिया ताँय गाड़ी पर चढ़ाय लेॅ हुनका साथें एैलोॅ छेलियै।
रास्ता में अंगिका साहित्य पर कत्तेॅ नी बात करलकै। हुनी अंगिका के इकलौता साहित्यकार छेलै, जें लंदन ताँय अपना माय के गोदी रोॅ भाषा अंगिका में ही बोलतें रहलै। हुनकोॅ बोली में शहद के मिठास छेलै। नापलोॅ-जोखलोॅ शब्द, चिन्तन में सागर रोॅ गहराई। हुनकोॅ कहलोॅ ई बात अभियो तांय हमरा कानोॅ में गूंजै छै कि,‘‘साहित्य रोॅ सेवा भगवान के सेवा छेकै। एकरा सें बढ़ी केॅ कोय तपस्या नै।’’

अंगिका केरोॅ वामन : डॉ. माहेश्वरी सिंह महेश 

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