जीवन - मृत्यु शाश्वत छै तैमय कथिल | अंगिका कहानी | डॉ. (श्रीमती) वाञ्छा भट्ट शास्त्री
| Angika Story | Dr. (Smt.) Vanchha Bhatta Shastri
मानलऽ जाय छै कि बुढ़ापा अभिशाप छै, लेकिन ई निर्भर करे छै कि बुढ़ापा कौन तरह से जिलऽ जाय । जीवन केरऽ ई अवस्था सामान्यतः मृत्यु केरऽ निकट मानलऽ जाय छै । आरो मन केरऽ स्वभाव होय छै कि उ मृत्यु केरऽ बारे में सोचबे नांय करे छै । एक सज्जन छेला जीवन भर तपस्वी के तरह रहे छेला । सब से बोड़ऽ आश्चर्य होले कि ई सज्जन बुढ़ापा में ऐत्ते उदास आरो निराश काहे रहे हथ । वृद्धावस्था में हुन्कऽ भेंट एक जवान संत से होल्हें । हुन्ही अपनऽ गुरू बनाय लेलका । एक दिन अपनऽ समस्या गुरू के सुनैलका कि हम्में बुढ़ापा में जेत्ते शरीर से नांय थकलऽ छी, मनऽ से थकी गेलं । ई उमर केरऽ ऊ दौर छै जबे जीवन आरऽ मृत्यु में कोय अन्तर नांय रहना चाहीवऽ । लेकिन अभी भी जीवन केरऽ बारे में सोचते-सोचते मृत्यु पर आय के अटकी जाय छै, तबे गुरू हुन्का सकझैलका नांय हम्में जीवन के समझै छियै नांय मृत्यु के । बस समय काटना ही जीवन मानी लै छिये । जबे जीवन सही रूपऽ में समझ में नांय आबे छै, तभिये आदमी के मृत्यु केरऽ भय सताबे छै । मृत्यु जबे ऐत्ते, तबे ऐत्ते लेकिन भय जीवन में सभे दिनऽ के लेलऽ आबी जाय छै । जे घड़ी से हम्मेमं इच्छा पर नांय, बल्कि स्वाभाविक तौर पर सरलता पूर्वक जीवन जिये लागे छियै, वह घड़ी से भय चलऽ जाय छै । आरो मृत्यु केरऽ दूरी कम होय जाय छै । एन्ह में इच्छा केरऽ जग्घऽ सरलता केरऽ जीवन जीलऽ जाय जेकरा कहे छै, समर्पण । बुढ़ापा में अनेक प्रकार केरऽ इच्छा फेरू से पैदा होय केरऽ कोशिश करे छै । लेकिन समर्पण सहजता छै, ते हम्में ओकरा नियंत्रण करी सके छिपे । आरऽ मृत्यु के ठीक से स्वागत करी सके छिये । एकरा बाद ऊ सज्जन केरऽ चेहरा फेरू कहियो परेशानी नांय देखैले । जे तरह से बचपन, जवानी में अभ्यास जरूरी छै, वेहे वृद्धावस्था में भी जरूरी छै ।
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