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Wednesday, August 5, 2020

गितिया | Angika Kahani | अंगिका कहानी | अनिरुद्ध प्रसाद विमल | Gitiya | Angika Story | Aniruddh Prasad Vimal

गितिया | अंगिका कहानी | अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Gitiya |  Angika Kahani |  Aniruddh Prasad Vimal


शंकर साव आय फेरू बहुत दिनोॅ के बाद हमरा ठियां ऐलोॅ छेलै। ओना तेॅ हम्में रोज अपना घरोॅ के आगू सें गुजरै वाला सड़क सें ऐतें- जैतें देखै छेलियै, मतरकि हिन्नें कुच्छु दिनोॅ सें शंकर ढेरे बदललोॅ नाँखी लागै छेलै। 

ओकरा बैठै लेॅ बोलला के बाद हम्में पूछलियै-‘‘कन्नें ऐलोॅ छोॅ शंकर भाय ? हाल-चाल तेॅ ठीक छै नी’’ ? 

‘‘हाल तेॅ देखिये रहलोॅ छोॅ कि आबेॅ शंकर, ऊ शंकर नै रहलै। एक समय छेलै कि हम्में एक राती में सात-आठ मोॅन धान भगवान उगै के पैहिले उसना करी केॅ छुट्टी करी दै छेलियै। दोनों जीव कमाय में एका सें एक छेलियै। मजकि आबेॅ की कहियौं नै तेॅ देहोॅ में रग रहलौं आरो नै तेॅ पूंजी। गितिया माय भी रोगाय गेलै।’’ 

बसत बाबू जे शंकर सें आवै के एक घण्टा पेहिलैं सें बैठलोॅ छेलै आरो हमरा सें जरूरी बात करी रहलोॅ छेलै, शंकर के ई रं बीचोॅ में आबी जाना हुनका अच्छा नै लागलै। आगू में राखलोॅ बीड़ी सुलगैतैं बसन्त बाबू नें बीच्है में शंकर साव केॅ टोकलकै - ‘‘उमर भी तेॅ कोय चीज होय छै शंकर भाय। उमर गिरला पर बारह बलाय। बेशी हाय-हाय करला सें केकरा बरक्कत देखी रहलोॅ छोॅ। दू- तीन बीघा खेत तोरा छेबे करहौं, सांय-बहू मिली केॅ बढ़ियॉं सें खाय-पीयै छेवे करोॅ... तबेॅ फेरू......?’’ 

बसन्त बाबू के मुनी समाजी टोन शुरू होय गेलोॅ छेलै। हाथोॅ में बीड़ी लेनें गौतम बुद्ध के भाषा में जबेॅ हुनी समझाबेॅ लागै छै तेॅ बड़का-बड़का के माथोॅ घुमाय दै छै- ‘‘तोंय हमरा देखोॅ साव जी, तोरा सें दस-पन्द्रह साल के बड़ोॅ हम्में जरूर होबै। जमीन-जग्होॅ भी तोरा सें बेशी नै छै। मतरकि हमरा कोय फिकिर नै दिन- रात बम-बम करै छियै। मस्ती में जीयै छी। जे होना छै, ऊ होबे करतै। ओकरा कोय रोकेॅ नै पारेॅ। फेरू ई रोना-धोना कथी लेॅ।केकरा लेॅ आदमी कानै छै। काम करोॅ, सोचोॅ नै। फोॅल तेॅ मिलबे करतै’’। 

शंकर बसन्त बाबू के बातोॅ सें वहेॅ रॅं निर्लिप्त रहलै, जेनां पानी में पुरैनी के पŸा। कुछु ओकतैला नांखी ऊ बोललै-‘‘बुझै छियै हम्मुओ सब। मतरकि छोड़ोॅ। जबेॅ अपना पर पड़ै छै, तबेॅ बुझाय छै, की करियै ? दस दिन पहिनें दुआरी पर सें गाड़ी चोरी होय गेलै। घरोॅ में सुतलोॅ छेलियै आरो गाड़ी पार। तकदीर ठीक छेलै जे बैल घरोॅ में जोरनें छेलियै। साव- 

बनिया के पूंजी बैल आरो गाड़ी। हजार टाका के गाड़ी। बाप रे बाप, जीŸो मरी गेलां’’। 

आभरी बसन्त बाबू पर असर भेलै-‘‘ की कहलौ ? गाड़ी चोरी होय गेल्हौं ? दुआरी पर सें ? अरे, ई गामोॅ में की-की नै भेतै’’। 

खैयन धान बेची केॅ आभरी गाड़ी बनवैनें छेलां’’ शंकर के आँँखी सें भट सें लोर गिरी गेलै। 

वातावरण भारी नै हुवै, हम्में बात आगुवे बढ़ाना ठीक समझी केॅ पूछलियै-‘‘ऐलोॅ छेल्हौ कोन कामोॅ सें शंकर भाय ? कोय मदद जों हमरा सें हुवेॅ पारेॅ तेॅ बोलोॅ’’। 

‘‘दू कामोॅ सें ऐलोॅ छलिये मास्टर साहब। एक तेॅ चार दिन लेली गाड़ी देॅ। धान मीलोॅ में धरलोॅ छै। कुटाय केॅ हटिया करबै, बहियारोॅ सें 

धानोॅ के पत्तनोॅ ढोना छै। ठंडा में रात-भर चोरोॅ डरें जागी केॅ जोगबारी करै लेॅ पड़ै छै’’। 

‘‘गाड़ी धरले छै। लै जा।......... दोसरोॅ काम’’ ? 

‘‘पंचैती करै लेॅ लागत्हौं’’। 

‘‘पंचैती.........’’ ? 

‘‘हों। पंचैती’’। 

‘‘केकरोॅ......’’ ? 

‘‘हमरी बेटी के। हमरोॅ दमादें, आय कै साल भै गेलै, नै लै जाय छै। एकरोॅ की कारण ? बियाह करलकै, गौना करलकै। एक-दू साल ऐबोॅ-गैबोॅ करलै। ओकरोॅ बाद छोड़ी देलकै। खेत बेची केॅ दहेज देलियै। बीच में फेरू माँँगला पर घड़ी आरो रेडियो देबे करलियै। तीन-चार दाफी पंचैती बैठैलियै। केकर्हौ गुदानत्है नै छै’’। 

सचमुचे में ई बात विचारै वाला छेलै, मजकि हम्में गामोॅ के पंचैती में पड़ै लेॅ नै चाहै छेलियै। आजकल पंचैती करै के मानें-खामखा दुश्मनी मोल लेना छेकै। पैहिलें लोगें मानै छेलै कि दस आदमी बैठी केॅ जे विचार करतै, ओकरा में अनरथ हुवेॅ नैं पारेॅ। बिना पाँँचें पंचकाठ नैं होय छेलै। पंचैती लोगें मानै छेलै। मतरकि आबेॅ के मानै छै। थाना-दरोगा, कोट- कचहरी बढ़लोॅ गेलै, पंचैती के महिमा घटलोॅ गेलै। 

हमरा चुप देखी केॅ शंकर आपनोॅ बोली में जादा सें जादा दुख भरी केॅ बोललै- ‘‘ई काम आपन्है केॅ करै लेॅ पड़तै। बॉंका जाय केॅ केशोॅ 

करलियै, सोचलियै, डरी जैतै। मतरकि तनियोॅ टा असर नै पड़लै। आपनें के बात सुरेशें नै उठैतै। दया करोॅ मास्टर साब। आपनें एक दाफी कही केॅ तेॅ देखियै’’। 

शंकर के तकलीफें हमरा प्रभावित करी गेलोॅ छेलै आरोॅ हमरोॅ आँँखी के आगू में ओकरोॅ बेटी गितिया के सुखलोॅ- पाकलोॅ सौंसें देह घूमी गेलै। एक तरफ सुरेशोॅ के मौंटोॅ- सोटोॅ जवानी सें भरलोॅ-पुरलोॅ देह आरो दोसरोॅ तरफ ताड़ोॅ के डमोला नांखी डोलतें गितिया। साल भर पैहिलें सुरेशें दोसरोॅ दोसरोॅ वियाहोॅ करी लेनें छेलै। हम्में कहलियै- ‘‘देखोॅ शंकर भाय, आबेॅ तोरा वास्तें कोय उपाय नै छौं। जिनगी में साँँय-बहू दोनों एक दोसरा के प्रति कोय-न-कोय आकर्षण सें आपस में बंधै छै। चाहेॅ ऊ आकर्षण देहोॅ के हुवेॅ आकि मनोॅ के। तोरोॅ बेटी के पास यै दोन्हूं चीजोॅ में कुछुवे नै छौं। आभरी साल बच्चा होला के बाद गितिया केॅ अंधगियो मारी देलक्हौं। ओकरा लकबा मारला के बाद हुरसा-हुरसी में तोंय दोनों में सें कोय्यो दवाय दारू नै करलौ। देहे नै ठीक तेॅ माथोॅ कहॉं सें ठीक रहतै। तोरोॅ दमादें जबेॅ ओकरोॅ बढ़ियां रहला पर नै राखलकों तेॅ आवेॅ छिमताही, कमजोरियाही होय गेला पर की राखतौं।आबेॅ ई बोझोॅ तोरा ढोय्ये लेॅ लागेॅ’’। 

‘‘बेटी के बोझाॅ यै संसार में बापें नै ढुवेॅ पारेॅ’’। 

‘‘तबेॅ तोंय की चाहै छोॅ। वै लहाशोॅ केॅ ओकरॉे दुआरी पर पटकी आबै लेॅ। वें ओकरा देखै लेॅ नैं चाहै छै। मारै छै। खाय लेॅ नै दै छै। तोंय गितिया सें ही पूछी केॅ देखियौ तेॅ, आपना इच्छा सें ऊ ससुराल जाय लेली तैयार छै’’। हम्में तें कोय्यो हालतो में यै पचड़ा में पड़ै लेली तैयार नै छेलियै। मजकि शंकरोॅ छोड़ै पर तैयार नै छेलै। कहलकै ‘‘एकरा लेली सोलहनी दोषी सुरेशे छै’’। 

‘‘केना केॅ’’ ? 

‘‘बियाह के तीन-चार साल बादे गितिया के ई हालत होलोॅ छै। ...... की ओकरोॅ पैहिलें हमरी बेटी यहेॅ रॅं छेलै। पैसा के कंजूसी कारणें ई हालत होय गेलै। वियाह में सबकुछ देला के बादोॅ हमरा सें हरदम्में कुछ नै कुछु मांग करतै रहै। बरी पीछु झोर। कम पूंजी वाला आदमी। कहां सें देतिहैं। समांग गिरला पर आपनोॅ आदमी के इलाज के नै करै छै।’’ 

हम्में देखी रहलोॅ छेलियै कि शंकर साव के आवाज तेज आरो निर्णयात्मक होलोॅ जाय रहलोॅ छेलै। ऊ झीटहा बोली में बोललै-‘‘आबे हमरा कुछु नै चाहियोॅ। ओकरोॅ बहू छेकै, वैं लै जाय। नै लै जैतै, तेॅ दुआरी पर धड़ी ऐबै। पौवा-कनमा, जेना केॅ मोनॅ हुवैॅ, सुरेशें खाय लेॅ दै। हमरा सें आबेॅ नै चलतैॅ’’। 

वसन्त बाबू भरोसोॅ देतें हुबें कहलकै-‘‘सब होय जैतै।पैहिलें ई बताबोॅ, बेटी के इलाज करी रहलोॅ छोॅ की नै’’ ? 

शंकर साव कानी भरलै। लागलै कोय उपहास करतें रहेॅ। समय पर कुछ एन्हैं प्रश्नो होय छै, जेकरा में आदमी केॅ आपनोॅ उपहास- बोध होय जाय छै। शंकर लेली जवाब देना मजबूरी छेलै-‘‘पुनसिया में एक्को डाक्टर नै छोड़नें छियै। नीलमणि झा, हमेन्दर चौधरी, सीरनाथ वर्मा, जैसवाल जी, भोला बाबू- किनका नै देखैलिये। अखनी ओड़हारा के नरेन्दर बाबू कन इलाज चली रहलोॅ छै। फायदा छै। आबेॅ जानेॅ गितिया के भागें। एक्को करम बाकी नै छै वसन्त बाबू। चंगेरी के तुलसी पासवान, हरि तांती, कोरियासी टोला के अर्जुन यादवोॅ तक सें झाड़-फूंक करैलियै। दुर्गापुर शंकर भगत के गादी पर भी लै गेलियै। की-की कहियौं, बेटी बास्तें बिहोॅ- फतिया होय रहलोॅ छियौं। की करबै, करमनासी छै छौड़ी, हमरा तेॅ दरिद्दर बनाय देलकोॅ गितियाँँ। ओकरा की कहबै। ओकरा तेॅ आपन्हैं नै आंखी लोर छै, नै मुँँहोॅ में बोली’’। 

एतना कहतें-कहतें शंकर साव बुतरू नांखी कानें लागलै-‘‘आबेॅ हमरोॅ अन्तिम इच्छा यहेॅ छै कि ऊ मरै या बचैॅ, आपनोॅ पहुना के देहरी पर। बेचारी केॅ सदगति मिली जाय। ओकरोॅ अगला जनम हम्में कैन्हें बिगाड़बै’’। 

हम्में ई जानै छेलियै कि सुरेशें गितिया केॅ कोय हालतोॅ में नै राखतै। वें दोसरोॅ वियाहोॅ तेॅ करिये लेनें छेलै। ये लेली ई भार हम्में वसन्त बाबू आरो पंचायत के मुखिया मंगनीलाल सिंह जी पर ही सौंपी केॅ निचिन्त होय गेलियै। 

शंकर साव चुप होय गेलोॅ छेलै। ओकरोॅ दोनों हाथ माथा पर आरो आँँख धरती पर ई रं गड़लोॅ छेलै मानोॅ धरती सें कही रहलोॅ छेलै-‘‘हे धरती, तोहें फाटोॅ, हम्में तोरा में समाय जैबोॅ।वसन्त बाबू के गेला पर शंकर हाथोॅ सें जमीन के सहारा लैकेॅ उठलैॅ आरोॅ जाबेॅ लागलै। हम्में एकटक ओकरोॅ गोड़ देखी रहलोॅ छेलियै। हमरा लागलै जेना शंकर के गोड़ोॅ में पहाड़ बान्हलोॅ रहेॅ। 

शंकर सांव के चल्लोॅ गेला पर हमरोॅ माथा में गितिया के बच्चा सें 

लैकेॅ आय तक के रूप नाची उठलै ? वियाह के समय कŸो स्वस्थ आरो सुन्दर लागै छेलै। शुरू में दुलहां पैसा-टका के लोभोॅ में नै मानलकै आरोॅ 

जबेॅ बापें सबकुछ दै देलकै, तेॅ ओकरोॅ देहे गिरी गेलै। 

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अभरी साल चौठ दिन गितिया हमरा कन अपना माय तरफ सें बैनों दै लेली ऐली छेलै। चौआठी बैठलोॅ। चुटकलोॅ मुँँह आरो गालॉे पर दू बड़ोॅ-बड़ोॅ धॅंसलोॅ आँँख। तीज परव छैलै। आय गितियां आपनोॅ सिंगार करलें छेलै। तेल, टिकुली, पाउडर, सिनूर पिहनी केॅ ऊ वहेॅ रॅं लागै छेलै जे रं ढहलोॅ भीती में गोसाँँय के सिंगारी। ओकरोॅ ई सिंगार देखी केॅ हम्में पूछनें छेलियै-‘‘आय बड़ी सजली छैं गितिया। पहुना ऐलोॅ छौं की’’ ? 

गितिया लजैलै आरो उŸार बोलै के कोशिश में डोली गेलै-‘‘बरत दिनां मोसमात वाला चेहरा लैकेॅ केकरोह कन नै जाना चाहियोॅ। सिनूर जनानी के शोभा छेकै। जब तांय जिŸाॅ छियै, तब ताँँय ढोय छियै’’। 

‘‘ससुराल आबैॅ नै जैब्है’’ ? 

‘‘लै जैतै तबेॅ नी’’। 

‘‘सुनै छियौ, भागी आबै छैं’’ ? 

‘‘मारतै तेॅ भागवै नै। बड्डी मारै छै।जब तांय देहोॅ में ताकत छेलै, सहलियै।’’ ‘‘आबेॅ नै सहेॅ पारै छियै। दैवां मरनॉे तेॅ नै दै छै’’ 

‘‘मरबैं तेॅ बेटी के पोसतौं ?’’ 

‘‘नाना नानी पोसतै’’। 

‘‘नाना-नानी धारी लेलेॅ छौ ?’’ हम्में हाँँसी केॅ बोललियै। 

‘‘जनम देनें छै तेॅ बोझोॅ के ढोतै’’। 

ऊ दिन गितिया के गेला पर हमरोॅ मोॅन केनां-केनां तेॅ करेॅ लागलोॅ छेलै। नै जानौं कŸोॅ दिन तांय मन आरोॅ माथा में गितिये घुमतें रहलै। मतरकि आदमी केॅ आपनोॅ कामोॅ सें फुरसत कहाँँ। निनानबे के फेर। पंचैती के जिम्मेदारी बसन्त बाबू पर सौपिये देनें छेलियै। समय नें सब भुलाय देलकै। 

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पांच-सात महीना के बाद एक दिन हम्में चैत के विहानी आठ बजे अपना खेतोॅ के अड्डा पर खाड़ोॅ मजूर सिनी सें चना उखड़बाय रहलोॅ छेलियै कि देखलियै कि शंकर साव नहर दै केॅ झटकलोॅ चललोॅ जाय रहलोॅ छै। सुखलोॅ-करंख। देहोॅ पर फाटलोॅ- चिटलोॅ गंजी। बिना जूŸा के फाटलोॅ चिरक्का होलोॅ गोड़। कनपट्टी सें बान्हलोॅ गमछी। 

चैती हवा बेफिकर सर-सर बही रहलोॅ छेलै। शंकरोॅ के धतर- पतर जैतें देखी केॅ अनायास हमरा गितिया के याद आबी गेलै। आवाज दैकेॅ बोलैलियै-‘‘आय ढेर दिनोॅ पर भेंट होलै। गितिया के सुनाबोॅ। कहॉं छौं आयकाल’’ ? 

शंकर के पपड़ियैलोॅ ठोरोॅ सें बोली मुश्किल सें निकललै-‘‘आपनें के कहला पर वसन्त बाबू पंचैती लेली बड़ी मिहनत करलकै। मुखिया जी के डॉंटला-धोपला पर पहुनां यहेॅ कहलकेॅ कि-‘‘हम्में विदागरी कराय लेॅ नै जैबै। हमरोॅ भनसिया छेकै, हमरा दुआरी पर धरी जाय। हम्में नै राखबै तबेॅ नी’’। लाचार होय केॅ वहेॅ करलियै। 

हम्में कहलियै-‘‘जे होलै, ठिक्के होलै। ससुराल, लड़की लेली स्वर्ग छेकै। आबे तेॅ ठीक छै नी’’ ? हमरोॅ बात सुनी केॅ शंकर साव के आँँखी में भरभराय केॅ लोर आबी गेलै-‘‘ठीक की रहतै। आय भिनसरवैं, बेहोशी के हालतोॅ में वै बेचारी केॅ हमरा कन पहुंचाय देनें छै। आबैॅ तबैॅ छै। कखनी दम टूटी जैतै, कहना मुश्किल। आवेॅ भरोसोॅ नै। जखनी सें ऐली छै, आँँख नै खेलनें छै।‘‘एक आदमी केॅ पुनसिया डाक्टर बोलाय लेली भेजी केॅ हम्में दुरगापुर शंकर भगत के गादी पर सें घुरलोंॅ जाय छियौं। कŸाॅ कोशिश करलकै, फुलहैस नै होलै। अन्त में भगतें भसम देनें छै। वहेॅ भसम लैकेॅ जाय रहलोॅ छियौं’’। 

एतना कही केॅ शंकर साव तेजी सें घरोॅ हिन्नें जाबेॅ लागलै। खेतोॅ पर जŸो बनिहार, ओŸो रं के बोली। हम्में एकटक शंकर साव केॅ जैतें देखी रहलोॅ छेलियै। मन उदास होय गेलै। 

कि तखनिये हम्में देखलियै कि वगल वाला बेरी गाछी पर सें टिटही के एक जोड़ा जोरोॅ सें टिटयाय केॅ उड़लै। भुवाय उठलै हमरोॅ सौसें देह। सिहरी गेलै मन आरो परान। बच्चा में माय जे कहै छेलै, ऊ बात याद आबी गेलै कि टिटही के बोलबोॅ असगुनियॉं होय छै। ई जम के दूत छैकेॅ, जे धरती सें जीवोॅ केॅ ले जाय वास्तें आवै छै। 

शंकरें एक दाफी आकाशोॅ हिन्नें हियैलकै आरो अपना माथा के ठीक उपर चौतरफा धूमी- धूमी केॅ टिटयैतें टिटही के जोड़ा देखी केॅ घरोॅ दिशा दरबनियाँँ दे देलके। 

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संपर्क : 
अनिरुद्ध प्रसाद विमल 
संपादक : समय/अंगधात्री समय साहित्य सम्मेलन, 
पुनसिया, बाँका, बिहार-813109. मोबाईल : 9934468342.

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