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Saturday, April 25, 2020

ऋतु सुरभि : समीक्षा | समीक्षक:- डॉ० विभा माधवी

 कृति:- ऋतु सुरभि

कृतिकार:- कैलाश झा किंकर

समीक्षक:- डॉ० विभा माधवी

प्रकाशक:- बेस्ट बुक बॉडीज

मूल्य:- 60 ₹

पृष्ठ:- 50

         ऋतु वर्णन की परम्परा हिन्दी साहित्य में आदिकाल से ही रही है। बहुत कवियों ने अपनी रचनाओं में बारहमासा का प्रयोग किया है। हिन्दी भाषा साहित्य परिषद" के महासचिव आदरणीय कैलाश झा 'किंकर' जी की अंगिका पुस्तक "ऋतु सुरभि" में भी सभी ऋतुओं का बड़ा ही मनोहारी वर्णन "मनहरण घनाक्षरी" में  हुआ है। कालिदास" के "ऋतुसंहारम्" की तरह छहो ऋतुओं का वर्णन ऋतु-सुरभि में हुआ है। 

        हर ऋतु की अपनी गुण और विशेषता होती है। प्रकृति में हर ऋतु का अपना महत्व है। प्रकृति का अद्भुत मानवीकरण इस रचना में दिखाई पड़ता है। शरद ऋतु में खेत में धान का फसल लहलहा रहा है। लहलहाता धान अपने को देखकर झूम-झूम कर गा रहा है, और अपने ऊपर इतरा रहा है। यह देख कर खेत खलिहान भी हँस रहा है, खुश हो रहा है।

"झूमि-झूमि गाबै धान,

बाजै नूपुर समान

हँस्सै खेत खलिहान

धान करो आस छै।"

        शरद ऋतु आते ही वर्षा थम जाती है। रास्ते से कीचड़ का नामोनिशान मिट जाता है। हर तरफ एक खुशगवार सा मौसम लगता है।

"घूमी जाहो गामे-गाम

पैलकै वर्षा विराम

कहीं कादो के नै नाम,

भेंट कहाँ जल से।"

         शरद ऋतु में अश्विन और कार्तिक मास खास होता है। अश्विन मास में हमारे पूर्वज पिंडदान का आस लगाए रहते हैं।

"आसिन कातिक मास,

शरद के मास खास

पितर लगाबै आस,

गया पिंडदान के।"

       शरद ऋतु आते ही जोर-शोर से माँ दुर्गा के पूजन की तैयारी शुरू हो जाती है। कातिक महीने में लोग धूम-धाम से दिवाली से  छठ तक पर्व ही पर्व मनाते हैं।

"आबै दुरगा-भवानी,

बड़ी माता महारानी

दुष्ट होतै पानी-पानी,

ज्ञानी पैतै ज्ञान कें।"

         शरद ऋतु बीतने के साथ ही हेमंत आ जाता है। हेमन्त के आगमन से ही गुलाबी ठंढ शुरू हो जाती है और सूर्य की प्रचण्डता धीमी पड़ जाती है।

"ठंढ लागै छै गुलाबी,

गेलै सुरुजो के दाबी

ओस गिरै आबी-आबी,

मोती पसरल छै।"

        ठंढ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा। लोग ठिठुर रहे हैं और ठंढ से बचने के लिए अलाव ताप रहे हैं। प्रतिदिन ओला की वृष्टि हो रही है।

"पड़ै ओला हिम रोज,

केना खिलतै सरोज

तापै आगी-आगी खोज,

सब्भे कठुआय छै।"

      हेमंत के बाद शिशिर ऋतु आ गया है। ठंढ का मौसम अपने पूरे सबाब पर है। सूर्य की धूप अब बिल्कुल नरम हो गयी है।

"सूर्य स्वंय ताप क्षीण,

अग्निकोण में आसीन

साँझ-भोर आगी ताप,

शीत काल काटै छै।"

       कुहासा इतना छा गया है कि चारो ओर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। शीतलहर चल रही है।

"सूझै कुच्छू नै जरा-सा,

घनीभूत छै कुहासा

शीतलहर चलै छै

हवा ठंढ बहै छै।"

        शीत ऋतु के बाद ऋतुराज वसन्त का आगमन होता है। ठंढ से ठिठुरी प्रकृति विश्राम पाती है। प्रकृति की सुंदरता पूरे सबाब पर है। फूलों की भीनी खुशबू हर ओर फैल रही है। चारो तरफ खुशनुमा वातावरण हो गया है। कोयल अपनी मधुर तान छेड़ कर सबके दिलों में उम्मीद जगा रही है। वासन्ती उमंग हर ओर छाया हुआ है। भौरा फूल-फूल पर मंडरा रहा है। लगता है कामदेव ने अपना बाण चला दिया हो।

"आबी गेलो छै बसन्त,

फूल खिललै अनन्त

हँस्सै सब्भे दिग्दिगंत,

शोभै ऋतुराज छै।


वासंती उमंग छिकै,

भौंरा नै अनंग  छिकै

संगिनी के संग छिकै,

मोन फगुआय छै।"

      वसन्त ऋतु बीतते ही ग्रीष्म ऋतु का आगमन शुरू होता है। फसल कट के घर आने लगा है। खेत-खलिहान सभी फसल से भरे हुए हैं। किसान अपने फसल को देखकर हर्षित है।

"कटी गेलै गेहूँ, मक्का,

चना, तीसी, अरहर

खेत-खलिहान सब्भे,

भरलों बुझाय छै।"

        ग्रीष्म के प्रचंड ताप से झील, नदी, ताल-तलैया सभी सूखा पड़ा हुआ है। कुआँ का जल स्तर इतना गिर गया है कि लगता है पानी पाताल से आ रहा है।

"झील सूना पानी बिना,

पोखर तालाब सूना

कुआँ केरों पानी गेलै,

सगरो पाताल मे।"

        ग्रीष्म ऋतु बीतते ही वर्षा ऋतु आ जाती है। प्रकृति हर्षित होती है। किसान के चेहरे पर खुशी छलकने लगती है। वह नई फसल बोने की तैयारी में है। आसमान में काले-काले बादल छाये हुए हैं।

"वर्षा ऋतु ऐलै आबें,

किसान मल्हार गाबै

बदरी सरंग सौंसे,

दौड़ै आबे' करिया।

    वर्षा ऋतु के आते ही हर ओर हरियाली छा गयी है। अब रेत का नामोनिशान मिट गया है।

"हरियैलै सब्भे खेत,

दीखै छै कहीं न रेत

जंडा, धान, सामा, कौनी,

उम्मीद जगाबै छै।"

    मनहरण घनाक्षरी में लिखा गया ये ऋतु-सुरभि सचमुच मन को हरने वाला है। इसमें प्रकृति के हर रूपों का वर्णन बहुत ही खूबसूरती के साथ हुआ है जो वाकई पाठकों को लुभाने वाला है।

स्वस्ति।

डॉ० विभा माधवी

खगड़िया

सम्पर्क सूत्र- 7372874844

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