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Friday, July 12, 2019

माय | अंगिका कहानी | डॉ. (श्रीमती) वाञ्छा भट्ट शास्त्री | Angika Story | Dr. (Smt.) Vanchha Bhatta Shastri

माय | अंगिका कहानी  | डॉ. (श्रीमती) वाञ्छा भट्ट शास्त्री
| Angika Story  | Dr. (Smt.) Vanchha Bhatta Shastri 


एक दिन सांझ के समय ओसरा पर बैठी के सामने बच्चा सबके खेलते देखी रहलऽ छेलिये । ओकरा में एक बच्चा केरऽ नाम गुड्डू छेले, माय के आते देखी के खेल छोड़ी के दौड़लऽ होलऽ ऐल आरेा माय से लपटाय गेल । माय भी बड़ी प्रेम से गुड्डु के गोदी में उठाय लेलकी । चुम्बा चाटी लेबे लागली । ई दृश्य देखी के नांय जाने कबे अपनऽ अतीत में डुबी गेलिये । हमरा भी अपनऽ बच्चा केरऽ एक- एक पल याद आबे लागले, मानऽ कल्हे केरऽ बात हुवे । हम्में कामऽ पर से ऐतिये आरो दोनों बच्चा हमरा में लपटाय लागे छेल । खिलौना, टॉफी के लेलऽ जिद्द करना, कहीं जाय के समय साथ जाय केरऽ जिद्द करना, आरो हम्में ओकरा समझाबै छेलिये, जल्दी आय जैबो ? तोहें कहीं नांय जैहें? वर्ष बीतते चलऽ गेले हमरा ई एहसा नांय होले कि दोनों बच्चा कबे बोड़ऽ होय गेले । आरो बाहर पढ़ै लै भी चलऽ गेले । मन ई मानै ले तैयार नाय छेले कि दोनों बच्चा बोड़ऽ होय चुकलऽ छै । आरो अपनऽ अच्छा बुरा समझी सके छै । हम्में अपनऽ आदत से लाचार छेलिये । रोज बिहाने बिहाने ओकरा मोबाइल से फोन करी के उठे से लै के खाना खाय कालेज जाय तक याद दिलाते रहे छेलिये । टोकते समझाते रहे छेलिये । हालांकि बच्चा के एकरऽ जरूरत नांय छेले । फिर भी लागे छेले कहीं भूखलऽ नांय रही जाय । कालेज केरऽ क्लास नांय छुट्टी जाय । ऐहे से हम्में फोन करते रहे छेलिये । हमरऽ पड़ोसिन मना करै छेली । मगर हम्में कहलिहों ने आदत से लाचार छेलिये । ओकरा छोटऽ- छोटऽ बाल के लेलऽ फोन करते रहे छेलिये । लागे छेले कि माय केरऽ ई जिम्मेदारी छै । बच्चा ते बच्चा ही छै । एक दिन हमरऽ बड़का बेटा जे दिलली में रहे छेले । हम्में ओकरा कही रखलऽ छेलिये, कहीं जैहे ते बताय दिहें, मन तोरे सनी पर टांगल रहे छै । लेकिन वू दिन ग्यारह बजे तक कोय फोन- तोन, नांय ऐले, हम्मे फोन करे केरऽ कोशिश करिय ते बाते नांय हुवे सके । वू रात सुते नांय सकलिये, पुरे रात थोड़ऽ थोड़ऽ देरी में फोन करते रहलिये । आरो भगवान से ओकर कुशल मंगल केरऽ प्रार्थना करते रहलिये । बिहार बहुत परेशान छेलिये कि कामऽ पर निरंग जेऐ ? की बात छै, फोन काहे नांय करी रहलऽ छै । हम्में ऐहे उधेड़ बुन में बैठलऽ छेलिये कि बेटा केरऽ फोन ऐले । हम्में ओकरा से कुछ पुछतलिये बेहे हमरा से पूछे लागले, माय रात भर में चालीस बेर फोन कथीले करलऽ छेल्हें । की होलऽ घरऽ में सब ठीक- ठाक छै न ? रात में बात नांय हुवे सकले, हम्में अपनऽ दोस्त के यहां से तीन बजे एलिये, यहाँ सब ठीक छै तो हें चिन्ता नांय करि हें । हमरा आफिस के लेलऽ देर होय रहलऽ छै, फोन रखें । ई सब बात वू एके सांसऽ में कही गेले । हम्में ई सब बात अपनऽ छोटऽ बेटा से कहलिये ते वोहऽ कही ऐलके भैया ठीके ते कहलको, ई सब सुनी के हम्में सोचे लागलिये । सचमुच बच्चा सब ऐत्ते बोड़ऽ होय गेले ? लेकिन की, कहिहों मन माने ले तैयार नांय होय छै । कभी- कभी हमरा लागे छै कि काश हम्में भी ई लोगऽ के तरह सोचे पारतिये ते हमरा भी ऐत्ते चिन्ता नांय होतिये । मगर एन्हऽ नांय होरे पारै छै । शायद औरत केरऽ ऐहे रूप केरऽ नाम छै माय (माँ)


टुटलौ कटोरी | अंगिका कहानी संग्रह | डॉ. (श्रीमती) वाञ्छा भट्ट शास्त्री
Tutlow Katori | Angika Story Collection | Dr. (Smt.) Vanchha Bhatta Shastri 

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